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मुख्तार अंसारी: चिपके, छिटके पर संरक्षण से नहीं ठिठके सियासी दल, बाहुबल और सियासत का बनाया जबर्दस्त कॉकटेल

मुख्तार अंसारी: चिपके, छिटके पर संरक्षण से नहीं ठिठके सियासी दल, बाहुबल और सियासत का बनाया जबर्दस्त कॉकटेल

Source: Navbharat Times

गाजीपुर: मुख्तार अंसारी ने जिस इलाके से निकल कर अपराध की दुनिया में बड़ा नाम किया। राजनीति में धाक जमाई। उसी मिट्टी में आज दफन हो गया। पिछले तीन दशक में मुख्तार अंसारी का नाम अपराध की स्क्रीन पर जितना फ्लैश हुआ, राजनीति के मंच पर भी उसे उतनी ही जगह मिली। सियासत की नजाकत को देखते हुए सियासी दल कभी उससे चिपके तो कभी छिटके। लेकिन, पनाह देने से नहीं ठिठके। यही वजह है कि 2002 के बाद करीब डेढ़ दशक तक अपराध व राजनीति दोनों में ही मुख्तार की समानांतर 'सरकार' चलती रही। यह उसकी पहुंच ही थी कि पंजाब से यूपी लाने के लिए योगी सरकार को पंजाब की कांग्रेस सरकार से सुप्रीम कोर्ट तक लड़ना पड़ा। अब मुख्तार की मौत के बाद भी सियासी नफा-नुकसान का मुद्दा मुखर है।

मुख्तार की पीढ़ी की बात करें तो उसे पहले उसके भाई अफजाल अंसारी के कदम राजनीति में जमे। कामरेड सरयू राय से राजनीति का ककहरा सीख अफजाल ने मोहम्मदाबाद सीट से 1985 से 93 तक लगातार सीपीआई को जीत दिलाई। यही दौर था जब यूपी में सपा व बसपा नई सियासी ताकत बन रहे थे और मुख्तार अपराध में सुर्खियां बटोर रहा था। 1996 में मुख्तार को बसपा ने अपने साथ ले लिया और उसके भाई अफजाल को सपा ने। मुख्तार पहली बार विधायक बना और अफजाल पांचवीं बार विधानसभा पहुंचे।

सरकार से नजदीकी, बदले सितारेबसपा से बात बिगड़ने के चलते 2002 में मुख्तार मऊ से निर्दल लड़कर जीत गया। जबकि सपा से अफजाल भाजपा के कृष्णानंद राय से हार गए। मायावती के इस्तीफे के बीच 2003 में मुलायम सिंह यादव सरकार में काबिज हुए। कुर्सी बनाए रखने के लिए उन्हें संख्या बल की जरूरत थी, जिसमें मुख्तार भी काम आया। सरकार की नजदीकी व संरक्षण ने उसके सितारे बदल दिए। 2004 में अफजाल गाजीपुर से सपा के टिकट पर सांसद हो गए। मुख्तार की छांव और मजबूत हो गई। जिसने भी मुख्तार पर कानूनी फंदा डालने की कोशिश की उसे कुचल दिया गया। तत्कालीन डीएसपी शैलेंद्र सिंह इसकी नजीर हैं। भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के मास्टरमाइंड होने के आरोप के बाद भी मुख्तार को कोई छू नहीं सका।

2005 में खुद जमानत तुड़वाकर वह जेल गया। जेल उसकी ऐशगाह में बदली और वहीं से लगभग डेढ़ दशक तक सियासत संभालता रहा। 2007 में बसपा सत्ता पर काबिज हुई तो मुख्तार भी बसपाई हो गया। 'चढ़ गुंडों की छाती पर...' नारा देने वाली बसपा प्रमुख मायावती का तर्क था कि मुख्तार पर आरोप साबित नहीं है। हालांकि, तीन साल बाद बसपा में स्थिति खराब हुई तो भाईयों के साथ मिलकर उसने अपनी पार्टी बना ली।

पहले तेवर और फिर समीकरण के कलेवर2012 में जब यूपी की सत्ता अखिलेश यादव ने संभाली तो उन्होंने राजनीतिक अंदाज बदलने के संकेत दिए। मुख्तार या उसके गुर्गों पर कोई सीधी कार्रवाई होती तो नहीं दिखी, लेकिन, खुलकर संरक्षण से दूरी जरूर बढ़ गई। 2016 के आखिर में मुख्तार की पार्टी कौमी एकता दल के विलय की कवायद का अखिलेश ने खुलकर विरोध किया और विलय निरस्त करना पड़ा। इसके बाद मुख्तार परिवार बसपा में चला गया और उसके ही टिकट पर चुनाव लड़ा। ढाई दशक से किसी भी मामले में सजा न होने का मुख्तार का रेकॉर्ड कायम था।

हालांकि, सत्ता से हटने के बाद मुख्तार परिवार से अखिलेश भी अधिक वक्त तक दूरी नहीं बना सके। 2019 में बसपा से गठबंधन के बाद गाजीपुर में अफजाल के लिए प्रचार किया। 2022 के विधानसभा चुनाव में मुख्तार के भतीजे सुहैब अंसारी को मोहम्मदाबाद से सपा का टिकट मिला और मुख्तार के बेटे अब्बास को सपा के सहयोगी दल सुभासपा से मऊ का टिकट मिला। दोनों जीते। 2024 के लोकसभा चुनाव में मुख्तार के भाई अफजाल को अखिलेश ने गाजीपुर से उम्मीदवार बनाया है।

अब्बास को टिकट देने वाली सुभासपा अब भाजपा के साथ हैं। उसके मुखिया ओम प्रकाश राजभर की सफाई है कि टिकट उन्होंने सपा प्रमुख के कहने पर दिया था, लेकिन उन्होंने अब तक अब्बास को पार्टी से बाहर नहीं किया है। अब्बास जेल में बंद है। न उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई का सिलसिला रुका है न उसके पिता के खिलाफ।

जेल को लेकर भाजपा-कांग्रेस सरकार में ठनी2017 में योगी की अगुआई में भाजपा सत्ता में काबिज हुई तो यूपी की जेलें मुख्तार को भारी पड़ने लगी। 2019 में एक धोखाधड़ी के मामले में वह पंजाब की रोपड़ जेल शिफ्ट हो गया। यूपी में दर्ज मुकदमों के लिए जब भी उसे पेशी पर आना होता, बीमारी का हवाला दे दिया जाता। करीब 2 साल तक यूपी की कस्टडी रिमांड पर पंजाब के मेडिकल बोर्ड की बीमारी की रिपोर्ट आती रही। आखिरकार यूपी सरकार को सुप्रीम कोर्ट तक लड़ना पड़ा।

इसके बाद 6 अप्रैल 2021 को यूपी में वापसी हो पाई और वह बांदा जेल में दाखिल हुआ। पंजाब में कांग्रेस की सरकार बदली तो सत्ता संभालने वाली आप सरकार ने मुख्तार के पक्ष में पुरानी सरकार में हुई सुप्रीम कोर्ट में पैरवी के 55 लाख रुपये का बिल देने से मना कर दिया। मुख्तार को वीआईपी सुविधाएं देने का भी आरोप लगा था।

मायावती खुलकर साथ, अखिलेश ने 'बच' कर की बातछवि व वोटों की गणित के कशमकश के बीच मुख्तार अंसारी की मौत पर विपक्षी दलों के सुर भी अलग-अलग हैं। लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक वोटों की गोलबंदी में जुटी बसपा प्रमुख मायावती ने खुलकर कहा है 'मुख्तार अंसारी की जेल में हुई मौत को लेकर उनके परिवार ने जो लगातार आशंकाएं व गंभीर आरोप लगाए हैं, उनकी उच्च स्तरीय जांच जरूरी है।' वहीं, सपा मुखिया अखिलेश यादव ने भी थाने, जेल से लेकर एनकाउंटर तक में हुई मौतों की जांच की मांग करते हुए सरकार पर गंभीर सवाल उठाए हैं।

हालांकि, उन्होंने मुख्तार अंसारी के नाम का कहीं जिक्र नहीं किया है। शिवपाल यादव सहित पार्टी के दूसरे नेताओं ने जरूर मुख्तार का नाम लेकर हमला बोला है। 2016 में शिवपाल ही सपा में मुख्तार की पार्टी के विलय की अगुआई कर रहे थे।

मुख्तार की मौत से सियासत पर कितना असर?दलों से अंदर-बाहर होने से निजात पाने के लिए मुख्तार अंसारी ने 2010 में कौमी एकता दल बनाया था, लेकिन इसका जमीनी असर न के बराबर रहा। 2012 के विधानसभा चुनाव में मुख्तार व सिगबतुल्लाह ही सीट जीत सके और 2014 में डीपी यादव सहित कई चेहरों को साथ लाने के बाद भी बेअसर रहे। इसलिए, मुख्तार परिवार की सियासी जमीन गिनी-चुनी विधानसभाओं के आगे बंजर हो जाती है। लेकिन, राजनीति पर परिणाम से अधिक असर 'परसप्शन' का पड़ता है।

पूर्वांचल की कुछ लोकसभाएं खासकर बलिया, गाजीपुर व घोसी में मुख्तार व उसके परिवार की राजनीतिक पूंजी है। मोहम्मदाबाद विधानसभा गाजीपुर जिले व बलिया लोकसभा का हिस्सा है जहां से मुख्तार का भतीजा सपा से विधायक है। गाजीपुर से अफजाल अंसारी खुद सांसद हैं और इस बार सपा के उम्मीदवार। घोसी लोकसभा की मऊ विधानसभा मुख्तार की परंपरागत सीट रही है और अभी उसका बेटा अब्बास अंसारी एमएलए है। इसलिए, इन तीन लोकसभाओं में सवाल व 'सहानुभूति' असर दिखा सकते हैं।

परिवार सपा में है तो सियासी फायदा भी उधर ही जाने के आसार है। यही वजह है कि बसपा मुख्तार के मसले पर अधिक मुखर है। जानकारों का यह भी कहना है कि ध्रुवीकरण हुआ तो प्रतिक्रियात्मक ध्रुवीकरण की संभावनाएं भी बढ़ेंगी जिसका फायदा भाजपा को हो सकता है। मुख्तार के न रहने के बाद उसके डर व असर की जमीन भी दरकेगी।

सियासत की 'मुख्तारी'1996 में बसपा से पहली बार मऊ सीट से विधायक बना2002 और 2007 में निर्दल जीता, 2003 में मुलायम सरकार का समर्थन किया2009 में बसपा में वापसी की वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ा, हारा2010 में कौमी एकता दल (QED) बनाया, 2012 में अपनी पार्टी से खुद मऊ, भाई सिबगतुल्लाह मोहम्मदाबाद से विधायक बने।2014 में QED से गाजीपुर से डीपी यादव, भाई अफजाल अंसारी को बलिया से लड़ाया दोनों हारे।2017 में बसपा के टिकट पर मऊ से पांचवीं बार विधायक बना2022 में मऊ से सपा गठबंधन में सुभासपा से बेटा अब्बास अंसारी जीता, सुभासपा अब एनडीए का हिस्सा